Adhyatam Upnisad अध्यात्म उपनिषद ( हिन्दी व संस्कृत)

हरिःॐ !
श्री
अन्तः शरीरे निहितो गुहायामज एको हि यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरे यं पृथिवी न वेद ।
यस्यापः शरीरं यो ऽआपोऽन्तरे  संचरन्  यमापो न विदुः ।
यस्य र्तेजः शरीरं यस्यतेजोऽन्तरे संचरन् यं तेजो न
वेद ।
यस्य वायुः शरीरं यो वायुमन्तरे संचरन् यं वायुर्न वेद ।
यस्याकाशः शरीरं यः आकाशमन्तरे संचरन् यमाकाशो  न वेद ।
यस्य मनः शरीरं यो मनोऽन्तरे  संचरन् यं मनो न वेद ।
यस्या  बुद्धिः शरीरं यो बुद्धिमन्तरे  संचरन्  यं बुद्धिर्न  वेद ।
यस्याहंकारः शरीरं  योऽहंकारमन्तरे संचरन् यमहंकारो न वेद ।
यस्य चित्तं  शरीरं  यश्चित्तमन्तरे संचरन् यमव्यक्तं  न वेद ।
यस्याक्षरं शरीरं योऽक्षरमन्तरे संचरन्  यमक्षरं  न वेद ।
यस्य मृत्यु शरीरं यो मृत्युमन्तरे  संचरन् यं मृत्युर्न वेद
स एष  सर्वभूतान्तरात्माऽपहतपात्मादिव्यो  देवो एको नारायणः ।
अह ममेति यो भावो देहासादावनात्मनि
अध्यासोऽहं निरस्तव्यो विदुषा ब्रह्मनिष्ठया ।।1।।

☀️हिन्दी में अर्थ ☀️

हरिः ॐ।

शरीर के भीतर हृदय रूपी मुक्ता में एक  " अजन्मा नित्य " रहता है ।
इसका शरीर पृथ्वी है, वह पृथ्वी के भीतर रहता है,पर पृथ्वी उसे जानती नहीं ।
जल जिसका शरीर है जल के अन्दर जो रहता है, पर जल जिसे जानता नहीं ।
तेज जिसका शरीर है और जो तेज के भीतर रहता है, तो भी तेज जिसकी जानता नहीं ।
जो वायु के भीतर रहता है, और वायु जिसका शरीर है, पर वायु जिसे जानता नहीं ।
आकाश जिसका शरीर है  और जो आकाश के भीतर रहता है  पर आकाश जिसे जानता नहीं ।
मन जिसका शरीर है  और जो मन के भीतर रहता है  तो भी मन  जिसको जानता नहीं ।
बुद्धि  जिसका शरीर है और  बुद्धि के भीतर जो रहता है तो भी बुद्धि जिसको जानती नहीं ।
अहङ्कार  जिसका शरीर है और जो अहङ्कार के  भीतर रहता है, तो भी अहङ्कार जिसको जानता नहीं ।
चित्त जिसका शरीर है और चित्त के भीतर  जो रहता है तो भी चित्त जिसको जानता नहीं ।
अव्यक्त जिसका शरीर है और  अव्यक्त के भीतर    जो रहता है तो भी अव्यक्त जिसको जानता नहीं ।
अक्षर जिसका शरीर है और  अक्षर के भीतर  जो रहता है तो भी अक्षर जिसको जानता नहीं ।
मृत्यु जिसका शरीर है और मृत्यु के अन्दर जो रहता है तो भी मृत्यु जिसे जानती नहीं ।
 वही इन सर्वभूतों का अन्तरात्मा है ।
उसके पाप नष्ट हो गये हैं । और वही  एक दिव्य देव नारायण है ।
देह इन्द्रियां आदि अनात्म पदार्थ हैं ।
इनके ऊपर मैं मेरा
एसा जो भाव होता है
वह अध्यास ( भ्रम )
है इसलिए विद्वान को बृह्मनिष्ठ द्वारा इस अध्यास को दूर करना चाहिए ।।1।।

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