श्रीललितोपनिषद
☀️।।श्रीललितोपनिषत् ॥☀️
॥ श्रीललितात्रिपुरसुन्दर्यै नमः ॥
ॐ परमकारणभूता शक्तिः केन नवचक्ररूपो देहः ।
नवचक्रशक्तिमयं श्रीचक्रम् । पुरुषार्थाः सागराः । देहो नवरत्ने
द्वीपः । आधारनवकमुद्राः शक्तयः । त्वगादिसप्तधातुभिरनेकैः
संयुक्ताः सङ्कल्पाः कल्पतरवः । तेजः कल्पकोद्यानम् ॥
रसनया भासमाना मधुराम्लतिक्तकटुकषायलवणरसाः षड्रसाः ।
क्रियाशक्तिः पीठं कुण्डलिनी ज्ञानशक्तिरहमिच्छाशक्तिः ।
महात्रिपुरसुन्दरी ज्ञाता होता । ज्ञानमर्घ्यं ज्ञेयं हविः
ज्ञातृज्ञानज्ञेयानां नमोभेदभावनं श्रीचक्रपूजनम् ॥
नियतिसहितशृङ्गारादयो नवरसाः । अणिमादयः
कामक्रोधलोभमोहमदमात्सर्यपुण्यपापमया
ब्राह्म्यादयोऽष्टशक्तयः । आधारनवकमुद्रा शक्तयः ।
पृथ्व्यप्तेजोवाय्वाकाशश्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वा-
प्राणवाक्पाणिपादपायूपस्थमनोविकाराः षोडशशक्तयः ।
वचनादानगमनविसर्गानन्दादानोपादानोपेक्षा-
बुद्धयोऽनङ्गकुसुमादिशक्तयोऽष्टौ ।
अलम्बुषाकुहूविश्वोदरीवरुणाहस्तिजिह्वायशस्विनी-
गान्धारीपूषासरस्वतीडापिङ्गलासुषुम्ना
चेति चतुर्दशनाडयः सर्वसङ्क्षोभिण्यादिचतुर्दशारदेवताः ॥
प्राणापानव्यानोदानसमाननागकूर्मकृकलदेवदत्तधनञ्जया
दशवायवः सर्वसिद्धिप्रदादि बहिर्दशारदेवताः ।
एतद्वायुदशकसंसर्गोपाधिभेदेन
रेचकपूरकपोषकदाहकाल्पावकामृतमिति प्राणः
सङ्ख्यत्वेन पञ्चविधोऽस्ति । जठराग्निर्मनुष्याणां मोहको
भक्ष्यभोज्यलेह्यचोष्यात्मकं चतुर्विधमन्नं पाचयति । तदा
काशवान्सकलाः सर्वज्ञत्वाद्यन्तर्दशारदेवताः ॥
शीतोष्णसुखदुःखेच्छासत्वरजस्तमोगुणादय वशिन्यादिशक्तयोऽष्टौ ।
शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः पञ्चतन्मात्राः पञ्चपुष्पबाणा
मन इक्षुधनुर्वल्यो बाणो रागः पाशो द्वेषोऽङ्कुशः ।
अव्यक्तमहत्तत्त्वाहङ्कारकामेश्वरीवज्रेश्वरी-
भगमालिन्योऽन्तस्त्रिकोणाग्रदेवताः ॥
पञ्चदशतिथिरूपेण कालस्य परिणामावलोकनपञ्चदशनित्याः
शुद्धानुरुपाधिदेवताः । निरुपाधिसार्वदेवकामेश्वरी सदाऽऽनन्दपूर्णा ।
स्वात्म्यैक्यरूपललिताकामेश्वरी सदाऽऽनन्दघनपूर्णा स्वात्मैक्यरूपा
देवता ललितामिति ॥
साहित्यकरणं सत्त्वं । कर्त्तव्यमकर्त्तव्यमिति भावनामुक्ता उपचाराः ।
अहं त्वमस्ति नास्ति कर्त्तव्याकर्त्तव्यमुपासितव्यानुपासितव्यमिति विकल्पना ।
मनोविलापनं होमः ॥
बाह्याभ्यन्तरकरणानां रूपग्रहणयोग्यतास्तीत्यावाहनम् ।
तस्य बाह्याभ्यन्तरकरणानामेकरूपविषयग्रहणमासनम् ।
रक्तशुक्लपदैकीकरणं पाद्यम् ।
उज्ज्वलदामोदाऽऽनन्दात्सानन्दनमर्घ्यम् । स्वच्छास्वतः
शक्तिरित्याचमनम् । चिच्चन्द्रमयीस्मरणं स्नानम् ।
चिदग्निस्वरूपपरमानन्दशक्तिस्मरणं वस्त्रम् । प्रत्येकं
सप्तविंशतिधाभिन्नत्वेन इच्छाक्रियात्मकब्रह्मग्रन्थिमयी
सतन्तुब्रह्मनाडी ब्रह्मसूत्रं सव्यातिरिक्तवस्त्रम् । सङ्गरहितं
स्मरणं विभूषणम् । स्वच्छन्दपरिपूर्णस्मरणं गन्धः ।
समस्तविषयाणां मनःस्थैर्येणानुसन्धानं कुसुमम् । तेषामेव सर्वदा
स्वीकरणं धूपः । पवनाच्छिन्नोर्ध्वज्वालासच्चिदाह्लादाकाशदेहो दीपः ।
समस्तयातायातवर्जनं नैवेद्यम् । अवस्थात्रयैकीकरणं ताम्बूलम् ।
मूलाधारादाब्रह्मरन्ध्रपर्यन्तं ब्रह्मरन्ध्रादामूलाधारपर्यन्तं
गतागतरूपेण प्रादक्षिण्यम् । तुरीयावस्थानं
संस्कारदेहशून्यं प्रमादितावतिमज्जनं बलिहरणम् ।
सत्त्वमस्ति कर्त्तव्यमकर्त्तव्यमौदासीन्यमात्मविलापनं होमः ।
भावनाविषयाणामभेदभावना तर्पणम् । स्वयं तत्पादुकानिमज्जनं
परिपूर्णध्यानम् ॥
एवं मूर्तित्रयं भावनया युक्तो मुक्तो भवति । तस्य
देवतात्मैक्यसिद्धिश्चितिकार्याण्यप्रयत्नेन सिध्यन्ति स एव शिवयोगीति
कथ्यते ॥
॥ इति श्रीललितोपनिषत्सम्पूर्णा ॥
हिंदी में अर्थ
॥ श्रीललितात्रिपुरसुन्दरी को नमस्कार ॥
॥ श्रीललितोपनिषत् ॥
परम-कारण-भूता शक्ति द्वारा मानव शरीर नौ चक्र-रूपात्मक
बना है । ``श्री-चक्र'' इन्हीं नौ चक्रों की शक्ति से परिपूर्ण है ।
पुरुषार्थ ही सागर-स्वरूप है और इस सागर में शरीर नौ
रत्नों (नवचक्र रूपी रत्न) में स्थित द्वीप के समान है । मूलाधार
की नौ मुद्राएँ ही शक्तियाँ हैं । त्वचा-आदि सात धातुओं से युक्त
अनेक सङ्कल्प ही कल्पवृक्ष हैं । ``तेज'' सुन्दर उपवन है ।
जिह्वा के द्वारा अनुभूत होनेवाले मधुर, अम्ल, तिक्त, कटु, कषाय और
लवणात्मक स्वाद ही छह रस हैं । क्रियाशक्ति पीठ है, ज्ञानशक्ति
कुण्डलिनी है और इच्छाशक्ति अहङ्कार है । महात्रिपुरसुन्दरी ज्ञाता
और होता हैं । ज्ञान अर्घ्य है और ज्ञेय ही हवनीय प्रदार्थ
है । ज्ञाता (किसी विषय या वस्तु को जो जान रहा हो), ज्ञान (किसी
विषय/वस्तु का ज्ञान) और ज्ञेय (वह विषय/वस्तु जिसको जाना जा
रहा है)- इनकी नमन-पूर्वक भेद-भावना ही श्रीचक्र का पूजन
है ।
शृङ्गार-आदि नौ रस हैं । अणिमा-आदि,
काम-क्रोध-लोभ-मोह-मद-मात्सर्य-पुण्य और पाप तथा ब्राह्मी
आदि आठ शक्तियाँ हैं । मूलाधार की नौ मुद्राएँ शक्तियाँ हैं ।
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश; श्रोत्र, त्वचा, चक्षु,
जिह्वा और घ्राण; वाक्, पाणि, पाद, पायु, उपस्थ; और मन के विकार-
यह सोलह शक्तियाँ हैं । वचन, आदान, गमन, विसर्ग, आनन्द,
आदान-उपादान, उपेक्षा और बुद्धि ही अनङ्ग-कुसुमादि आठ शक्तियाँ
हैं । अलम्बुषा, कुहू, विश्वोदरी, वरुणा, हस्ति-जिह्वा, यशस्विनी,
गान्धारी, पूषा, सरस्वती, इडा, पिङ्गला और सुषुम्ना- ये नाडियाँ
सर्व-संक्षोभिणी आदि चतुर्दशार की देवता हैं ।
प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और
धनञ्जय- ये १० वायु सर्व-सिद्धि-प्रदा आदि बहिर्दशार के देवता
हैं । इन्हीं १० वायुओं के सम्पर्क से उपाधि-भेद द्वारा रेचक, पूरक,
पोषक, दाहक और अल्पावकामृत नाम से प्राण पाँच प्रकार का होता
है । भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य- इन चार प्रकार के अन्नों
का पाचन मनुष्यों का जठराग्नि करता है । तभी सर्वज्ञत्व-आदि
अन्तर्दशार के सभी देवता प्रकाशमान् होते हैं ।
शीत, ऊष्ण, सुख, दु:ख, इच्छा, सत्व-गुण, रज-गुण, तम-गुण-
ये आठ ही वशिनी आदि ८ शक्तियाँ हैं । शब्द, स्पर्श, रूप, रस,
गन्ध- ये पाँच तन्मात्राएँ ५ पुष्प-बाण हैं; मन- ईख का
धनुष है; वृत्तियाँ- बाण हैं; राग (आसक्ति)- पाश है; और
द्वेष- अङ्कुश है । अव्यक्त, महत्-तत्त्व और अहङ्कार मध्यस्थ
त्रिकोण की कामेश्वरी, वजेश्वरी और भग-मालिनी देवता हैं ।
१५ तिथियों के रूप से काल के परिणाम को देखनेवाली १५ नित्याएँ
हैं- ये नित्याएँ शुद्ध-स्वरूपा अधि-देवता हैं । उपाधि-रहिता
सर्व-देव-मयी कामेश्वरी सदा आनन्द-पूर्णा हैं । साधक की अपनी
आत्मा में मिली हुई स्थितिवाली, परिपूर्ण आनन्द-स्वरूप वाली ललिता
कामेश्वरी इष्ट-देवता हैं ।
सहित करना अर्थात् सामञ्जस्य करना ही सत्व है । कर्तव्य या
अकर्तव्य- इस भावना से मुक्त होना ही उपचार है । ``मैं'- ``तुम'
है । कर्तव्य या अकर्तव्य नहीं हैं । उपासित और अनुपासित- यह
विकल्पना है । मन को विलय करना ही होम है ।
बाहरी और भीतरी इन्द्रियों की रूप-ग्रहण करने की योग्यता है-
यह ``आवाहन'' है । साधक की बाहरी और भीतरी इन्द्रियों द्वारा एक
रूप-एक विषय का ग्रहण करना ही ``आसन'' है । रक्त और शुक्ल-
इन दोनों पदों को एक करना ``पाद्य'' है । उज्ज्वल आनन्द से आनन्दित
करना ``अर्घ्य'' है । शक्ति की स्वच्छता- यही ``आचमन'' है ।
चिच्चन्द्र-मयी का स्मरण करना ``स्नान'' है । चिदग्नि-स्वरूपा
परमानन्द-शक्ति का स्मरण करना ``वस्त्र'' है । इच्छा-क्रियात्मक
ब्रह्मग्रन्थि-मयी ब्रह्म-नाडी ही ``ब्रह्म-सूत्र'' है, और यही
ब्रह्मनाडी २७ प्रकार से भिन्न होकर अतिरिक्त वस्त्र भी है ।
सङ्ग-रहित स्मरण ही ``आभूषण'' है । स्वच्छन्द परिपूर्ण स्मरण
ही ``गन्ध'' है । मन की स्थिरता द्वारा सभी विषयों का अनुसन्धान
करना- यह ``पुष्प'' है । उन विषयों को सदा स्वीकार करना- यह
'धूप'' है । पवन द्वारा उठी हुई सच्चिदानन्द की ज्योति ही ``दीपक'
है । सारे आवागमन का त्याग- यही ``नैवेद्य'' है । तीनों अवस्थाओं
को एक करना- ``ताम्बूल'' है । मूलाधार से ब्रह्म-रन्ध्र तक और
ब्रह्म-रन्ध्र से मूलाधार तक आना-जाना ही ``प्रदक्षिणा'' है ।
तुरीय स्थिति को प्राप्त कर के संस्कार-देह से रहित होकर,
परमानन्द में डूबना- यह बलि देना है । कर्तव्य-अकर्तव्य की
उदासीनता से आत्म-लय कर मात्र सत्व ही है- यह भावना करना
होम है । भावना के विषयों में अभेद का विचार रखना ही तर्पण
है । अपने को श्रीपादुका में मग्न करना ही पूर्ण ध्यान है ।
इस प्रकार तीनों स्वरूपों की भावना से युक्त होनेवाला मुक्त हो
जाता है । उसे देवता और आत्मा के ऐक्य की सिद्धि बिना प्रयास
के ही प्राप्त हो जाती है और वह शिव-योगी कहलाता है ।
॥ श्रीललितोपनिषत् सम्पूर्ण होती है
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