द्वयोपनिषत् । संस्कृत व हिन्दी ।

द्वयोपनिषत्
 ॐ अआत् : श्री मद्दयोत्पत्ति । बाक्यो द्वितीयः । षट्पदाण्य ष्टादश । पञ्चविंशत्यक्षराणि । पंचदशाक्षरं पूर्वम् दशाक्षरं परम् । पूर्वो नारायणः प्रोक्तोऽनादिसिद्धो मन्त्ररत्नः सदाचार्य मूलं ' ।

आचार्यो वेदसंपन्नो विष्णुभक्तो विमत्सरः । । मन्त्रज्ञो मन्त्रभक्तश्च सदामन्त्राश्रयः शुचिः ।१ । गुरुभक्तिसमायुक्तः पुराणज्ञो विशेषवित् ।
 एवं लक्षणसंपन्नो गुरुरित्यभिधीयते । २। आचिनोति हि शास्त्रार्थनाचारस्थापनादपि । स्वयं माचरते यस्तु तस्मादाचार्य उच्यते । ३। गुशब्दस्त्वन्धकारः स्यात् रुशब्दस्तनिरोधकः । ।
अन्धकार नरोधित्बाद्गुरुरित्यभिधीयते । ४।
 गुरुरेव परं ब्रह्म गुरुरेव परा गतिः ।
गुरुदेव परं विद्या गुरुरेव परं धनम् । ५ ।
 गुरुरेव परः कामः गुरुरेव परायणः । यस्मात्तदुपदेष्टासौ तस्माद्गुरुतरो गुरुः। ६।
सिद्धिर्भवति ।
 न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तते इति ।
 य एव खेदेत्यपनिषत् । ७।
           
            अब श्रीमद्वय की उत्पत्ति बताई जाती है (उसकी प्रधानता   बनाई जाती है ।) दूसरा वाक्य है । षटपद अठारह हैं । पच्चीस इनमें अक्षर हैं । पन्द्रह पहले दस बाद में । सदाचार का आदि कारण मन्त्र रत्न स्वरूप अनादि सिद्ध भगवान नारायण पहली ही निरूपति है ।

 जो शास्त्रज्ञ अचार सम्पन्न देव्ज्ञ वैष्णव तथा डाह ईष्वा से रहित , मन्त्रों का ज्ञाता , मन्त्रों में श्रद्धा रखने वाला , मन्त्रों का आश्रय लेने वाला । तथा पवित्र हो ।१।
 गुरु में भक्ति रखने वाला , पुराणों को जानने वाला विशेषज्ञ ही । इन सब गुणों से जो विभूषित है उसे गुरु कहा जाता है । २ ।
शास्त्रों के अर्थों को भली भांति चुनने ( समझने ) के कारण तथा सदाचार की स्थापना करने के कारण एवं उसका अपने आप भी आच रण करने के कारण ही आचार्य पद प्राप्त हो सकता है अर्थात् जो ऐसा करता है वह इसी कारण आचार्य कहलाता है । ३ ।
 गुरु शब्द के अन्दर जो ' गु ' अक्षर है उसका अर्थ है अन्धकार , ' रु ' अक्षर का अर्थ है उसे , रोकन वाला , अतः अज्ञानरूपी अन्धकार को रोकने के कारण ही उसे ' गुरु कहा जाता है । ४ ।
गुरु ही परब्रह्म है , गुरु ही परमगति है गुरु ही उत्तम विद्या है एवं गुरु ही वस्तुतः सर्वोत्तम  धन है । ५ ।
गुरु ही वस्तुतः सर्वोत्तम  इच्छित वस्तु है । गुरु ही परम आश्रय का स्थान है क्योंकि वह उस परम ज्ञान का उपदेश करने वाला है । इसी कारण गुरु महान् अन्धकार का नाशक है । ६ ।
 जो इसका एक बार भी मुह से उच्चारण करता है । वह संसार से सर्वथा मुक्त हो जाता है । उसे सभी धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष नामक पुरुषार्थों की प्राप्ति हो जाती है । वह फिर कदापि कभी भी इस संसार में नहीं आया करता , यह निश्चित सिद्धांत है एक दम सत्य बात है । जो इसे ठीक प्रकार समझता है इस पर श्रद्धा करता है उसे ही ये लाभ प्राप्त होते हैं ।७ ।

 ॥ द्वयोपनिषत् समाप्त । ।
।।जय श्री राधे ।।

Comments

Popular posts from this blog

सर्व कार्य हेतु सिद्ध मंत्र

नारायणास्त्र

ब्रह्म संहिता